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| Sun is the significator of true knowledge and Venus relates to the creativity. Rahu and Ketu are the demonic forces and Jupiter is the most divine energy among Planets.
In case the knowledge of the Sun and creativity of Venus are clubbed together with the divinity of Jupiter, the benefic planet, the great architect of demigods ‘Vishwakarma” takes birth. And if the knowledge of Sun and creativity of Venus are affiliated with Rahu or Ketu, the demonic planets, incarnates the great architect of demons, “Mayaasur” who is also famous as "MayaDaanav".
In primeval period there was the demon called Myaasur. He was just a mere architect until he performed a strict penance towards the head of all the Vedas, Surya in order to seek the great sanctified and deeply hidden knowledge about the science of constellations, known as Vedic Astrology.
Glad with his penance, Lord Savita, another name of Lord Surya, got appeased and granted him the boon and declared, “O' demon-chief, I am satisfied with your penance and have understood your intention. I will certainly provide you with the knowledge of Astro-science and shall also reveal its secrets to you”. It was the time a normal architect became one of the Greatest Architect way ahead of his time.
Mayaasur is as respected as Vishwakarma in his community. Being the known teacher of the Sciences like Astrology, Architect, Constructions, Mathematics and Astronomy, he built up so many buildings, Gardens, seminar houses and likewise for the demons.
It was the true devotion of Mayaasur for Lord Surya that he gained so much of the knowledge. From the primordial time the Grantha created by Mayaasur is very famous by the name of Mayadhipam .
The Great Sage Valmiki has mentioned for at least 50 times in Sunderkand, YudhKand and UttarKand about LankaPuri as the creation of Mayaasur and his bizzare architectural manoeuvre.
The Kingdom of Demons, Bhogawati was constructed by Mayaasur only.
Mayaasur not only constructed delectable structures for demons, but he constructed few amusable structures for humans and demigods as well. One of the structures that he constructed at the order of Lord Krishna was the kingdom of Indraprastha . He also created a meeting house for the King Yudhishthra. The flooring system of the meeting house was distinguishly amusable that the water appeared as floor and the floor appeared as water. That's the reason, the brave and wise Duryodhana was too astonished of illusion of the meeting house.
As per ancient epics, Mayaasur was the son of sage Kashyap and his wife Dhanu . His wife's name was Hema and his obedient daughter Mandodari was married to Ravana .
Similar to SuryaLoka and Chandraloka all three Sky-floating kingdoms famous as Tripur was constructed by Mayaasur. Only Lord Shiva had the power to destroy these Kingdoms and so he is called as Tripurari .
In the ancient architectural texts Mayaasur is worshipped as the primeval teacher of Science of Architecture. In MatsyaPurana, there are contents about 18 teachers of Science of Architecture. Mayaasur is designated with a special rank among all. Mayaasur despite of being a demon, became one of the greatest architect and astrologer of his time by the grace of Lord Surya.
“If you too aspire to become worthy of the blessings of Lord Surya then apart from adopting Gems and Rudraksha you should don over his fatherly figurine and worship him with great dedication, devotion, faith and reverence. I am very sure you will also win his Grace and Knowledge just like Mayaasur and like devotee-in-chief, Lord Hanumaana.”
"After All, He Is The Father"
Thanks, O' Lord Surya !!!
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सूर्य सर्जनकरता व ज्ञान के कारक हैं और शुक्र रचनात्मकता के कारक हैं। राहु व केतु आसुरी शक्ति हैं वहीं बृहस्पति देवत्व को परिभाषित करते हैं।
जब सूर्य का ज्ञान और शुक्र की रचनात्मकता बृहस्पति के देवत्व से मिलती है तो देवशिल्पी विश्वकर्मा का जन्म होता है। और यदि सूर्य का ज्ञान और शुक्र की रचनात्मकता का मिलन राहु या केतु रूपी आसुरी शक्ति से हो जाए तो मयासुर के रूप में असुर शिल्पी प्राप्त होते हैं। मयासुर ही मयदानव के नाम से प्रसिद्ध है।
प्राचीन काल की बात है मयासुर नामक महान शिल्पी ने सत्य युग के अंत में वेदांगों में श्रेष्ठ तथा परम पुणयमच तथा अत्यंत रहस्यमय नक्षत्र ज्ञान (ज्योतिष विद्या) के श्रेष्ठ ज्ञान को प्राप्त करने के लिए अत्यंत कठोर तप करके भगवान सूर्य की आराधना की। उसके तप से प्रसन्न हुए भगवान सविता प्रकट हुए और उसे वरदान देते हुए बोले, “हे दानव श्रेष्ठ में मैं तुम्हारी तपस्या से संतुष्ट हूं, मैंने तुम्हारे अभिप्राय को समझ लिया है। मैं तुम्हें अवश्य संपूर्ण ज्योतिर्विज्ञान का ज्ञान प्रदान करूंगा और उसका रहस्य भी बताऊंगा”।
जिस प्रकार देव शिल्पी के रूप में विश्वकर्मा की प्रसिद्धि है, वैसे ही असुर शिल्पी के रूप में असुर श्रेष्ठ मयासुर की प्रतिष्ठा है। शिल्प कला, वास्तुकला, चित्रकला, गणित ज्ञान, खगोल ज्ञान के आचार्य होने के कारण असुर लोक के उद्यान और असुरों की सभाओं के निर्माता मयासुर ही हैं।
और यह सभी ज्ञान मयासुर को भगवान सूर्य की भक्ति से ही प्राप्त हुआ। मयासुर द्वारा रचित “मयशिल्पम” नामक शिल्पशास्त्रीय ग्रंथ अत्यंत प्राचीन काल से भारत में चला आ रहा है। महर्षि वाल्मीकि ने सुंदरकांड, युद्धकांड और उत्तर कांड के लगभग 50 अध्यायों के अंतर्गत मायासुर द्वारा निर्मित लंकापुरी के वर्णन में मयासुर के विचित्र शिल्प कौशल का परिचय दिया है।
असुरों की नगरी भोगावती के निर्माता मयासुर ही हैं। मयासुर केवल दैत्यों के ही नहीं प्रत्युत देवताओं, मनुष्य और यहां तक कि भगवान श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर के कहने पर इंद्रप्रस्थ नगर तथा युधिष्ठिर के दिव्य सभा भवन के निर्माता भी हैं। उस सभा भवन का फर्श इतना विलक्षण था कि स्थल जल के समान और जल स्थल के समान प्रतीत होता था। इसी कारण दुर्योधन जैसा शूर एवं बुद्धिमान भी उसे देखकर भ्रम में पड़ गया।
पौराणिक कथाओं के अनुसार मयासुर कश्यप पत्नी धनु के पुत्र हैं और इनकी पत्नी का नाम हेमा है। मंदोदरी नामक इनकी सुलक्षणा कन्या का विवाह रावण के साथ हुआ था। सूर्य चंद्रमा की भांति आकाश में विचरण करने वाले तीनों पुरों के निर्माता मयासुर ही हैं।
इन पुरों का भेदन करने की शक्ति केवल भगवान शिव में ही थी इसलिए उन्हें त्रिपुरारी कहा गया। शिल्प शास्त्रों के ग्रंथों में आद्ये आचार्य के रूप में मयासुर की वंदना की गई है। मत्स्यपुराण में वास्तु विद्या के 18 आचार्य परिगणित हैं उनमें मयासुर को विशिष्ट स्थान प्राप्त है।
जैसे मयासुर शिल्प शास्त्र में निपुण थे वैसे ही भगवान सूर्य की कृपा से उनमें ज्योतिषज्ञान भी भरपूर था।
तो यदि आप भी अपने जीवन में सूर्यदेव की कृपा के पात्र बनना चाहें तो न केवल रत्न, रूद्राक्ष इत्यादि से अपितु श्रृद्धापूर्वक भक्तिमय होकर व उन्हें पिता मानकर उनका पूजन व ध्यान कीजिए। साथ ही उनके गुणचरित्रों का अपने जीवन में उतारने का प्रयास करिए। मुझे पूर्ण विश्वास है कि मयासुर व भक्तराज हनुमान जी की भांती आप भी उनकी दया व ज्ञान के पात्र बनेंगे।
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