मासिकधर्म

Chapter 4 - धार्मिक उत्पीड़न (मासिकधर्म का प्रचलित दूसरा मत)

 

दूसरा मत यह कहता है कि पूजा व होम के समय , हम जो भेंट देवताओं को अर्पित करते हैं , चाहे वह भोग के रूप में हो अथवा आहूति के रूप में , हमारा ध्येय यह होता है कि वह देवताओं की पाँचों इन्द्रियों को संतुष्ट करने वाला हो ( अर्थात जिसे देख कर , सूँघ कर , स्पर्श कर , स्वाद लेकर व श्रवण कर देवतोओं को आनंद की अनुभूति हो ) । उदाहरण के लिए - यदि हम भोग में सेब का फल अर्पित करते हैं तो वह पूरा , गोल , लाल - पीले रंग का हो ( अर्थात सढ़ा गला न हो ), सुगंधित हो , पूरी तरह पका हो ( अर्थात बिना चखे ही अनुमान लगा लेना चाहिए कि वह मीठा ही होगा ), स्वच्छ हो तथा उसकी बनावट भी सुदृढ़ हो। अर्थात देवताओं को अर्पित करने से पूर्व यह निश्चित करना उचित है कि भेंट पूर्णतया देवताओं की पाँचों इन्द्रियों को आनंदित करने वाली हो।

मासिकधर्म का संबंध यहाँ आता है कि इस चक्र के दौरान एक निश्चित प्रकार की गंध उत्त्पन्न होती है जिसे अधिकतर मनुष्य सुगंधित नहीं कहेंगे। ( चूँकि यह गंध शरीर से त्यागे गए दूषित पदार्थों से उत्त्पन्न होती है सो दुर्गंध ही अनुभव होती है ) । और दुर्गंध से आनंद अथवा संतुष्टि की अनुभूति प्राप्त नहीं होती। और जब यह दुर्गंध देवताओं को अर्पित की गई भेंट से जुड़ती है तो वह भेंट दुर्गंध के कारण अर्पण योग्य नहीं रह जाती।

परंतु यहाँ भी वही प्रश्न उठता है कि क्या नारी जानबूझ कर इस प्रकार गंध उत्त्पन्न करती है? नहीं ! 'यह गंध' 'प्राणिक क्रिया द्वारा' 'शरीर से उत्त्सर्जित' दूषित पदार्थों द्वारा उत्त्पन्न होती है । तो जिस क्रिया में प्राणों की कार्यविधी संलिप्त हो गई, वो किस प्रकार अशुभता का कारण बन सकती है।

ऊपरलिखित मत, कुछ महिलाओं व बुद्धिजीवियों को आपतिजनक लग सकता है, जिसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ, परंतु यह मत प्रचलन में तो है ही, इसलिए इसका उल्लेख करना तर्कसंगत लगता है।

इस संसार में ऐसे समुदाय भी हैं जिनमें मासिकधर्म के दौरान नारी को स्पर्श करने तक को पाप की संज्ञा दी गई है व उन्हें एकांत में रखा जाता है। आज के आधुनिक युग की नारी को यह अतिवादी लग सकता है, परंतु इसे इस प्रकार से देखा जा सकता है कि स्पर्श से ऊर्जा का हस्तांतरण होता है (आप ने भी यह अनुभव किया होगा कि ‘योग‘ में मुद्राओं का प्रचलन है व पूजा तथा होमादि में मंत्रों का जाप करते समय भी किन्हीं उंगलियों को आपस में स्पर्श करवाया जाता है। इसका कारण ऊर्जा को गति प्रदान करना व हस्तांतरण करना होता है)। मासिकधर्म के चक्र के दौरान भी नारी के शरीर व चेतना में अद्वितिय शक्तियों का प्रवाह होता है। ऐसे समय में दूसरों को छूना न जाने किस प्रकार का संवेदनशील अनुभव प्रकट कर सकता है। या इस समय नारी द्वारा स्पर्श से ‘प्राणिक ऊर्जाओं‘ का हनन भी हो सकता है। संभवतः इसी कारण मासिकधर्म के दौरान नारी को परस्पर्श की अनुमति नहीं दी जाती।
 
 
 

महाभारत की एक प्रसिद्ध कथा है जिसमें जबरदस्ती एक नारी को उसके प्राणिक ऊर्जाओं के असंतुलन के समय, अर्थात मासिकधर्म के समय छू कर प्रताड़ित किया गया। यह दृष्टांत दर्शाता है कि किस प्रकार नारी की अद्वितिय शक्ति का हनन पूरे समूदाय को भुगतने के लिए विवश कर सकता है। यह दृष्टांत दुशासन व दुर्योधन के हिंसक अंत व उनकी पूरी जाति के विध्वंस की कथा कहता है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि दुशासन ने द्रौपदी को उसके मासिकधर्म के समय न केवल छुआ अपितु उसे नग्न करने का प्रयास कर उसके साथ दुर्व्यवहार किया।

हालांकि इस कथा में ऐसा स्पष्टतौर पर तो नहीं बताया गया है कि द्रौपदी उस समय मासिकधर्म चक्र से गुजर रहीं थीं, परंतु इस बात से अंदाजा अवश्य लगाया जा सकता है कि दुशासन द्रौपदी को किसी एकांत कक्ष से खींच कर लाया था और उस समय द्रौपदी के बाल बंधे हुए भी नहीं थे। यह दोनों ही अवस्थाएं सांस्कृतिकरूप से नारी के मासिकधर्मचक्र की ओर ही इशारा करती हैं।
उस दुर्व्यवहार के क्षण के बाद से ही द्रौपदी न अपने केश खुले रखने का प्रण लिया। उसने वेदना से भर कर यह उद्घोष किया - "दुशासन ! तुम्हारा रक्त बहने के उपरांत ही मैं अपने केश बाँधुंगी "। संभवतः यह मासिकधर्म के दौरान होने वाले रक्तस्राव का संकेत था। दुशासन (दूषित पदार्थ) जिसकी हत्या हो जाने पर (उत्त्सर्जन हो जाने पर) द्रौपदी (नारी) अपने केश बाँधेगी (अर्थात फिर से शुद्ध हो जाएगी)

ये उदाहरण किसी को क्रोधित व कुपित करने के लिए नहीं दिये गए हैं। यदि कोई मनुष्य, बिना किसी पूर्वाग्रह के, ज्ञानरूपी चेतना के सहारे, 'अशुद्धता' व 'अशुभता' को समझने का प्रयास करे तो यह उदाहरण कुपित नहीं करेंगे।
 
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