ऐसा माना जाता है कि मासिकधर्म का चक्र वह समय है, जब एक नारी के शरीर में ‘अपान वायु‘ की ऊर्जा प्राकृतिकरूप से सर्वाधिक प्रबल होती है और ऐसा प्राकृतिक उद्देश्य की पूर्ती के लिए होता है। ‘अपान क्रिया‘ के द्वारा शरीर से भौतिक अशुद्ध तत्त्वों का त्याग किया जाता है (उदाहरण के लिए - प्रसव के समय गर्भाश्य संबंधी मृत ऊतकों का त्याग) व भावनाओं के उतारचढ़ाव को नियंत्रित कर नवऊर्जा प्रदान की जाती है।
पूजा व प्राणायाम दोनों ही योग हैं और इन प्राणिक क्रियाओं के संपादन से प्राण नियमित एवं संतुलित होते हैं। जबकि प्राणों की क्रियाप्रणाली ऐसी है कि वे आवश्यक्तानुसार अपनी प्रबलता एवं दुर्बलता करते रहते हैं। मासिकधर्म के समय , 'अपान प्राण' की प्रबलता अनिवार्य होती है न कि प्राणों का संतुलन अथवा आयाम (Rest) अनिवार्य होता है। यही कारण है कि मासिकधर्म के समय धार्मिक अनुष्ठान एवं प्राणायामरूपी योगों को करना उचित नहीं होता है , क्योंकि ऐसा करने से ‘अपान प्राण‘ की क्रिया प्रभावित ( अर्थात शीथिल अथवा अतितीव्र ) हो सकती है , जिससे मासिकधर्म के दौरान दूषित पदार्थों का निस्तारण होने में बाधा उत्त्पन्न हो सकती है। ( यहाँ यह लिखना आवश्यक है कि अधिकतर समुदाय मासिकधर्म के समय मानसिक जाप को सामान्यतः अनुमति देते हैं ) ।
नारी जाती कम से कम एक विषय में भाग्यशाली है कि उसे एक वर्ष में बारह बार अपनी अनियंत्रित भावनाओं के द्वंद को मुक्त करने के अवसर प्राप्त होते हैं। यह दुःख का कारण है कि अधिकतर महिलाऐं इस समय को जागृती के लिए प्रयोग नहीं करतीं अर्थात इस समय को नहीं जीतीं या यूँ कहें कि इस समय में भावनाओं की होने वाली मुक्ति को चेतनरूप से महसूस नहीं करतीं। मासिकधर्म चक्र के दौरान नारी , उत्सुकता , चिंता , व्याकुलता , क्रोध , उदासी व depression के वशीभूत होकर कह उठती है - ” काश मैं पुरुष होती ” ।
काश, नारी इन डरावने, अनजाने व तर्कहीन विचारों व भावनाओं से प्रभावित न होती (चाहे ये भाव महीने में एक बार ही क्यूँ न आते हों) अपितु वह इन भावनाओं को मुक्त होने देती, बह जाने देती और भावनाओं के अशुद्ध रूप को शुद्ध रूप में रुपांतरित होते हुए देखती व महसूस करती, तो नारी जाति सच में ‘मनोवैज्ञानिक उपचारक शक्ति‘ के प्रबल रूप में ढल चुकी होती। और हो गया उसका उलटा। दुर्भाग्यवश नारी स्वयं मनोवैज्ञानिक रूप से पीड़ित हो गई।
‘भावनात्मक रूप से आहत होने' व ‘स्वयं में ही सिमट जाने के लक्षण बताते हैं' कि नारी की ‘बुद्धि' एवं ‘ज्ञानरूपी चेतना' के मध्य कुछ संघर्ष चल रहा है। वास्तविकता में मासिकधर्म चक्र के समय, व्यथित होकर, स्वयं को बाह्य संसार से प्रथक व अधिक अंतरमुखी करने की चाहत, नारी को अपने अंतःकरण (अपने मूल की अवस्था) से पुनः संबंध स्थापित करने का अवसर प्रदान करती है (यदि ऐसा चेतन रूप से जागृत रह कर किया जाए)।
‘मासिकधर्म‘ शारीरिक मशक्कत से छुट्टी लेने जितना सरल नहीं है। यह सही मायने में बदलाव है। यह वह बेआरामी है जो समय के साथ कम होती जाती है। परंतु यह भी सत्य है कि जब यह बेआरामी समाप्त होती है तो नारी की अपनी पूर्ण प्रकृती से मुलाकात होती है। भावनाओं के द्वंद का सामना करना , ”भावनात्मक व आध्यात्मिक परिपक्वता” के विकास का एक भाग है।
इस भावनात्मक प्रक्रिया के दौरान , अंधविश्वासों पर बरबाद की गई ऊर्जा , नारी को अपनी ही सहजवृति में बहा कर ले जाती है। एक स्तर तक तो यह उचित है कि इससे संबंधों में गहराई आती है। परंतु अंधविश्वासों पर आवश्यक्ता से अधिक ऊर्जा बरबाद करने से मात्र उसी भयाक्रांत परिस्थिति व उदासीन संबंधों की जकड़न में बार बार फंसने का डर रहता है।
‘ स्वचेतना ' अर्थात ज्ञानरूपी समझ की असक्रियता के कारण , मासिकधर्म को मात्र , स्वादिष्ट भोजन खाने व आराम करने का अवसर समझकर अवनत कर दिया जाता है , बजाये इसके कि इसे स्वयं के भीतर उपजे स्वोपचार की पद्धति ( स्वयं का उपचार कर सकने की पद्धति ) के रूप में प्राप्त परमात्मा का आशीर्वाद समझा जाए ( जो कि यह है )। |