ग्रहों के विषय में एक और ‘वैश्विक सिद्धांत‘ को समझ लीजिए कि ‘केतू‘ एक ऐसा ग्रह है जो हर बीत चुके क्षण को अपने अंदर संजोकर रखता है। ‘राहु‘ हर आने वाले क्षण की संरचना को जानता है। इस प्रकार यह दो ग्रह हमारे द्वारा हो चुके और होने वाले हर कर्म को जानते हैं, इसलिए इन दोनों ग्रहों को ‘कर्म-प्रधान ग्रह‘ की संज्ञा दी गई है।
शनि को न्यायाधीश की उपाधि दी गई है। राहु-केतु द्वारा हमारे ही कर्मों का जैसा खाका शनि के सामने रखा जाता है, शनि उसी के अनुसार न्याय करते हैं, और सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र आदि ‘कार्यपालक ग्रहों‘ को निर्देश देते हैं कि वे किस प्रकार का कर्मफल प्रस्तुत करें। शनि कर्मफल दाता हैं, परंतु वह स्वयं से नहीं अपितु अन्य कार्यपालक ग्रहों के माध्यम से सुख-दुःखरूपी ‘भोग‘ या ‘भुगतान‘ प्रस्तुत करवाते हैं।
विडंबना देखिए कि करनी हमारी है और उपाय ग्रहों के लिए किए जाते हैं। हम भी शिक्षा व ज्ञान के अभाव में मात्र अनुभवहीन ज्योतिषियों के कहे अनुसार उपाय करते रहते हैं।
तो बताइए जिस ग्रह ने कुछ किया ही नहीं है वह आपके द्वारा किया गया उपाय कैसे स्वीकार करेगा। और अगर स्वीकार करलेगा तो इसका सीधा सा अर्थ होगा कि वह दोषी हैं।
मित्रों! ‘परमात्मिक ज्ञान‘ का तकाजा तो यही कहता है कि प्रकृति किसी भी एसे ग्रह को इतना उतरदायित्व वाला कार्य नहीं सौंपेगी जो दोषी हो। शनि, राहु, केतु, सूर्य आदि ग्रह, रोहणी, पुष्य आदी नक्षत्र, मेष, वृष्भ आदि राशियां, इत्यादि सभी ‘ईश्वरिय गुणों‘ से युक्त इकाइयां हैं। और जहाँ ‘इश्वरिय गुण‘ होंगे वहाँ ‘अनुशासनरूपी कठोरता‘ तो हो सकती, परंतु कोई ‘नकारात्मक दोष‘ नहीं हो सकता।
‘करनी तो हमारी है‘, सो ‘समाधान‘ तो ‘हमारी करनी‘ का ही करना पड़ेगा। हमें ही ऐसे कर्म करने पड़ेंगे कि ‘राहु‘ हमारे लिए एक उज्जवल भविष्य की संरचना अपने भीतर संजो सके। अर्थात हमें ही ‘वैश्विक सिद्धांत‘ के अनुरूप कर्म करने होंगे।
सभी ग्रह ‘वैष्विक शक्तियां‘ हैं। हम इन ऊर्जाओं का प्रयोग अपने भविष्य को सुधारने के लिए तो कर सकते हैं, परंतु कर्मफल से बचने के लिए नहीं कर सकते। यह ‘वैश्विक सिद्धांत‘ है कि जैसे कर्म होंगे वैसे ही फल प्रस्तुत किए जाएंगे, और इस नियम को कोई नहीं बदल सकता। (यदि कोई ज्योतिषी इस नियम को उलटकर उपाय बताने का दावा करता है तो वह मात्र अपने स्वार्थ की पुष्टि हेतु ही ज्योतिष-विज्ञान का गलत प्रचार एवं प्रयोग कर रहा है) । पूर्व में हमारे ही द्वारा किए गए कर्मों से उत्पन्न हुए दुःखों व कष्टों के निवारण के लिए यदि हम कैसे भी उपाय करेंगे वे निश्चय ही निष्फल होंगे, क्योंकि कर्मफलदाता शनि और अन्य किसी भी ‘ईश्वरिय ऊर्जा‘ को आप महंगे रत्न, पूजा (वो भी आपके लिए किसी और के द्वारा की गई पूजा) , मंत्र, यंत्र, उपाय, टोटके आदि से बेवकूफ नहीं बना सकते। रिश्वत के लेन-देन से मनुष्य लोक में तो कार्य चल सकता है, परंतु ‘वैश्विक सत्ता‘ में रिश्वत का प्रयोग भविष्य के लिए हानिकारक ही सिद्ध होगा।
परंतु यदि भविष्य को सुधारना चाहें तो ‘वैश्विक प्राकृतिक सिद्धांतों‘ के अनुसार ‘ज्योतिष विद्या‘ का अनुसरण करके आप यह जान सकते हैं कि भविष्य में किन-किन ग्रहों का प्रभाव अधिक होगा, तो उन ग्रहों की ऊर्जा को ‘वैश्विक सिद्धांत‘ के अनुरुप अपने कलयाण हेतु अवश्य ही प्रयोग में ला सकते हैं। और ‘वैश्विक सिद्धांत‘ को सरल भाषा में समझने के लिए ‘स्वचेतना‘ का अघ्ययन अवष्य ही करना चाहिए।
ग्रहों के गुण-स्वरूप को समझकर, उनकी प्रकृति को समझकर, उनके दिशा-निर्देशों का पालन करते हुए जीवनयापन करने से व उनसे संबंधित दिव्य रत्न, रुद्राक्ष, यंत्र आदि को विश्वास सहित धारण करने से उन ग्रहों की ‘सक्रिय समयावधि‘ में आप दिव्य और अलौकिक अनुभव प्राप्त कर सकते हैं। और आने वाले भविष्य एवं अगले जन्मों की उज्जवल रूपरेखा ‘राहु‘ में जमा करवा सकते हैं।
मेरे मतानुसार यह हर माता पिता का कर्तव्य है कि वे अपनी संतान के उज्जवल भविष्य के निर्माण के लिए उनके बचपन से ही किसी अनुभवी तथा ‘वैश्विक सिद्धांत‘ को मानने वाले ज्योतिषी को जन्मपत्री पढ़वाकर उनका अनुसरण करें।
हे ईश्वर! स्वचेतना जागृत हो !!!