शनि से करें प्रेम - यही है सफलता की कुंजी

Chapter No. 5 - हनुमान व शनि की कथा

 

"एक बार की बात है भक्तराज हनुमान राम सेतु के समीप ध्यान में अपने परम प्रभु श्री राम की भुवनमोहिनी झांकी का दर्शन करते हुए आनंदित हो रहे थे। ध्यान अवस्थित आंजनेय को बाह्य जगत की स्मृति भी ना थी।"

उसी समय सूर्यपुत्र शनि समुद्र तट पर टहल रहे थे। उन्हें अपनी शक्ति एवं पराक्रम का अत्यधिक अहंकार था। वह मन ही मन सोच रहे थे, “ मुझ में अतुलनीय शक्ति है, सृष्टि में मेरी समता करने वाला कोई नहीं है।“ इस प्रकार विचार करते हुए शनिदेव की दृष्टि ध्यान में मग्न श्री रामभक्त हनुमान पर पड़ी। उन्होंने बजरंगबली महावीर को पराजित करने का निश्चय किया।

युद्ध का निश्चय कर शनि आंजनेय के समीप पहुंचे। उस समय सूर्य देव की किरणों में शनि देव का रंग अत्यधिक काला हो गया था। भीषणतम आकृति थी उनकी।

पवनकुमार के समीप पहुंचकर अतिशय उद्दण्डता का परिचय देते हुए शनिदेव ने अत्यंत कर्कश स्वर में कहा, “बंदर! मैं प्रख्यात शक्तिशाली शनि तुम्हारे सम्मुख उपस्थित हूं और तुम से युद्ध करना चाहता हूं। तुम पाखंड त्याग कर खड़े हो जाओ।“

तिरस्कार करने वाली अत्यंत कटु वाणी सुनते ही भक्तराज हनुमान ने अपने नेत्र खोले और बड़ी ही शालीनता एवं शांति से पूछा, ‘महाराज! आप कौन हैं और यहां पधारने का आपका उद्देश्य क्या है?”

शनि ने अहंकारपूर्वक उत्तर दिया, “मैं परम तेजस्वी सूर्य का परम पराक्रमी पुत्र शनि हूं। यह जगत मेरा नाम सुनते ही काँप उठता है। मैंने तुम्हारे बल-पौरूष की कितनी ही गाथाएँ सुनी है इसलिए मैं तुम्हारी शक्ति की परीक्षा करना चाहता हूं। सावधान हो जाओ, मैं तुम्हारी राशि पर आ रहा हूं”।

अंजनीसुत ने अत्यंत विनम्रता पूर्वक कहा, “शनिदेव! मैं वृद्ध हो गया हूं और अपने प्रभु का ध्यान कर रहा हूं। आप इस में व्यवधान मत डालिए। कृपापूर्वक अन्यत्र चले जाइए”।
मदमत्त शनि ने सगर्व कहा, ”मैं कहीं जाकर लौटना नहीं जानता और जहां जाता हूं वहां अपना प्राबल्य और प्राधान्य तो स्थापित कर ही देता हूं”।

कपिश्रेष्ठ ने शनिदेव से बार-बार प्रार्थना की, “हे महात्मन! मैं वृद्ध हो गया हूं, युद्ध करने की शक्ति मुझ में नहीं है। मुझे अपने भगवान श्री राम का स्मरण करने दीजिए। आप यहां से जाकर किसी और वीर को ढूंढ लीजिए मेरे भजन ध्यान में विघ्न उपस्थित मत कीजिए”।

“कायरता तुम्हें शोभा नहीं देती हनुमान”! अत्यंत उद्धत शनि ने मल्लविद्या के परम आराध्य वज्रांग हनुमान की अवमानना के साथ व्यंग पूर्वक तीक्ष्ण स्वर में कहा, “तुम्हारी स्थिति देखकर तो मेरे मन में करुणा का संचार हो रहा है, किंतु मैं तुमसे युद्ध अवश्य करूंगा”।

इतना ही नहीं शनि ने महावीर का हाथ पकड़ लिया और उन्हें युद्ध के लिए ललकारने लगा। हनुमान जी ने झटककर अपना हाथ छुड़ा लिया। परंतु युद्ध लोलुप शनि पुनः भक्तवर हनुमान का हाथ पकड़कर उन्हें युद्ध के लिए खींचने लगा।

“आप ऐसे नहीं मानेंगे”, धीरे से कहते हुए पिशाचग्रह घातक कपिवर ने अपनी पूछ बढ़ाकर शनि को उस पर लपेटना प्रारंभ कर दिया।
कुछ ही क्षणों में शनि, हनुमान जी की सुदृढ़ पूंछ में कंठ तक बंध गए। उनका अहंकार, उनकी शक्ति एवं उनका पराक्रम व्यर्थ सिद्ध हुआ। वह सर्वथा अवश, असहाय और निरुपाय होकर मजबूत बंधन की पीड़ा से छूटने को छटपटा रहे थे।

“अब रामसेतु की परिक्रमा का समय हो गया!”, अंजनानंदन उठे और दौड़ते हुए सेतु की प्रदक्षिणा करने लगे। शनिदेव की संपूर्ण शक्ति से भी उनका बंधन शीतल ना हो सका। भक्तराज हनुमान के दौड़ने से उनकी विशाल पूंछ वानर और भालुओं द्वारा रखे गए शिलाखंडों पर गिरती जा रही थी। वीरवर हनुमान दौड़ते हुए जानबूझकर भी अपनी पूंछ शिलाखंडों पर पटक देते थे। दर्द के कारण शनि की बड़ी अद्भुत एवं दयनीय दशा थी।

शिलाखंडों पर पटके जाने से उनका शरीर रक्त से लथपथ हो गया। उनकी पीड़ा की सीमा ना रही और उग्रवेग हनुमान की परिक्रमा में कहीं विराम नहीं दिख रहा था। तब शनि अत्यंत कातर स्वर में प्रार्थना करने लगे, “हे करुणामय भक्तराज! मुझ पर कृपा कीजिए। अपनी उद्दंडता का दंड में पा गया हूँ। आप मुझे मुक्त कीजिए। मेरे प्राण छोड़ दीजिए”।

दयामूर्ति हनुमान जी रुक गए। शनि का अंग प्रत्यंग लहूलुहान हो गया था, असहाय पीड़ा हो रही थी उनकी रग-रग में। विनीतात्मा हनुमान जी ने शनि से कहा, ”यदि तुम मेरे भक्तों की राशि पर कभी ना जाने का वचन दो तो मैं तुम्हें मुक्त कर सकता हूँ, और यदि तुमने ऐसा नहीं किया तो मैं तुम्हें कठोरतम दंड प्रदान करूंगा”।

“सुरवन्दित वीरवर! निश्चय ही मैं आपके भक्तों की राशि पर कभी नहीं जाऊंगा”। पीड़ा से छटपटाते हुए शनि ने अत्यंत आतुरता से प्रार्थना की, “आप कृपा पूर्वक मुझे शीघ्र बंधन मुक्त कर दीजिए”।

शरणागतवत्सल भक्तप्रवर हनुमान ने शनिदेव को छोड़ दिया। शनि ने अपना शरीर सहलाते हुए गर्वापहारी मारुतात्मज के चरणों में सादर प्रणाम किया और वे चोट की असहाय पीड़ा से व्याकुल होकर अपनी देह पर लगाने के लिए तेल मांगने लगे।

तो जो जन उन्हें तेल प्रदान करता है उसे वह संतुष्ट होकर आशीर्वाद देते हैं। कहते हैं इसी कारण अब भी शनिदेव को तेल चढ़ाया जाता है।

वैसे तो भगवान शिव बाहरी रुप से बहुत सुंदर नहीं है, फिर भी हम सभी उनके परमआनंद स्वरूप व भोलेबाबा के स्वरूप को मन से प्रेम करते हैं। शनिदेव की कृपा प्राप्ति हेतु उसी प्रकार हमें उनसे भी प्रेम करना चाहिए।

मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस प्रकार शनिदेव को मन में बसा कर यदि उनका पूजन आदि करेंगे, तो वह आपकी पूजा भी स्वीकार करेंगे और आपको सदैव परम सुखी रहने का वरदान भी देंगे।

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एक सीखः

भगवान हनुमान को सर्वोच्च भक्त के रूप में नामित किया गया है। और यह स्पष्ट है कि भक्ति अनुशासन का दूसरा नाम है।

जो अपने कर्मों से अनुशासित है, वह भगवान हनुमान का ही आदर्शरूप है और उसे शनि से डरने की कोई आवश्यक्ता नहीं है।

 
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