श्री कृष्ण धरती पर अवतरित हुए। धर्म की रक्षा हेतु अधर्मियों का नाश करने के लिए उन्होंने अर्जुन को ज्ञान दिया... और अर्जुन ने अधर्मियों का नाश किया भी। परंतु क्या उसके उपरांत दुष्कर्म समाप्त हुऐ; शोषण रुका? नहीं ऐसा नहीं हुआ। और आज के युग में, जो श्री कृष्ण के अवतार के बाद का युग है, दुष्कर्म व शोषण अपने चरम पर हैं।
बीमारी के मात्र लक्षणों का इलाज करने से आप एक छोटे से अंतराल के लिए तो स्वस्थ अनुभव कर सकते हैं परंतु यदि ज्ञानरूपी चेतना के स्तर को न उठाया गया तो बिमारी वैसी ही बनी रहेगी और धीरे धीरे विकरालरूप ही धारण करती जायेगी।
तो भी, लक्षणमात्र से ही सही, पर संघर्ष करने से व लड़ने से अहम् की तुष्टि (पोषण) अवश्य होती है। अर्थात यदि हम प्रयास करके किसी बलवान और बहुत धनवान दुष्कर्म करने वाले से लड़ भी लें, तो मात्र इतना ही अनुभव होगा कि देखा मैंने कैसे उस दुष्ट को नीचा दिखाया। परंतु इससे समस्या और भी विकराल हो जाती है अर्थात दुष्कर्म करने वाला और भी अधिक दुष्कर्म करने को आतुर हो जाता है।
एक कहावत है - ”अधमरा शेर अधिक खूंखार हो जाता है”! इसलिए यह विचार कि संसार के सभी दुषकर्मियों को स्माप्त कर देने से समस्या का हल हो जायेगा, अनुचित है।
शोषणकर्ता व शोषित दोनों ही प्रकृति की भयरूपी दुष्प्रवृति में फंसे हैं। और यह दोनों एक दूसरे को पोषण प्रदान करते हैं व एक दूसरे के गुणों को बढ़ाते जाते हैं। शोषणकर्ता और अधिक शोषण करता जाता है तथा शोषित और अधिक शोषण का शिकार होता जाता है। एक व्यक्ति की निजी समस्या होती है, और हर व्यक्ति की निजी समस्याऐं सामूहिक होकर समाज के स्तर पर सामाजिक रूप में दिखती हैं। तो मूलभूत निजी समस्याऐं सामाजिक समस्याऐं बनकर, प्रकृति की व्यवस्था प्रणाली (System) का हिस्सा बनकर दुःसाध्य बन जाती हैं। यह समस्याऐं देश व काल के अनुसार अपना रूप तो बदल सकती हैं, परंतु समाप्त नहीं हो सकतीं।
मूलभूत समस्या का हल मात्र एक ही है! और वह है - चेतना की सक्रियता बढ़ाना। जब ‘हम आम लोग' ‘अपनी चेतना' अर्थात ”स्वचेतना” का स्तर बढ़ाऐंगे, तभी शोषण का अंतहीन चक्र टूट पायेगा। और विश्वास रखिए के ऐसा एक एक मनुष्य के प्रयास से ही होगा। अगर हर मनुष्य ”स्वचेतना” को सक्रिय करने का प्रण करले तो बस संसार का कल्याण होना ही है। |