परंतु ऐसा भी नहीं है कि यदि एक अकेला मनुष्य प्रयास करेगा तो कुछ नहीं होगा। निजी स्तर पर ”स्वचेतना” की सक्रियता से उस मनुष्य का परमकल्याण होना ही है - ”यह सिद्ध है”। सबसे उत्तम बात यह है कि ”स्वचेतना” की जागृति से ”मोक्ष” व ”मुक्ति” का साधन भी होता है।
तो यदि आप समाज का उद्धार चाहें... निजी भौतिक उद्धार चाहें... अथवा संसार से मुक्ती चाहें - ”स्वचेतना” की सक्रियता अनिवार्य है!
”स्वचेतना” ज्ञानरूपी वह सेतु है, जिस पर चल कर एक मनुष्य भयग्रस्त संसार को त्याग कर, प्रेम व सद्भावना के उस लोक में पहुँच सकता है जहाँ... ”नित्य शांति है... परम आनंद है...”।
”इस ज्ञानग्रंथ के माध्यम से ‘प्रकृति का तात्त्विक ज्ञान' समझाया गया है। विभिन्न तत्व-समूह से बना हमारा शरीर, हमारी बुद्धि, हमारा मन व इन्द्रियाँ किस प्रकार क्रियाऐं करती हैं, इसका विस्तारपूर्वक विवेवन किया गया है। ‘प्रकृति के तीनों गुणों' व ‘परमात्मा के निर्गुणों' का सविस्तार वर्णन तथा ‘स्वभाव' एवं ‘विचारों' का विवेचन कर, परमात्मा को प्राप्त होने का साधन समझाना, इस ज्ञानग्रंथ का उद्देश्य है। (और महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि इन्हीं साधनों को अपनाने से मनुष्य अपने सांसारिक जीवन का स्तर भी ऊँचा कर सकता है)। साथ ही इस शरीर में स्थित ‘आत्मा' अर्थात ‘पुरुष' की प्रसांगिक्ता व ‘परमात्मा की अनुकंपा' अर्थात ज्ञानरूपी ”स्वचेतना” का विवेचन किया गया है।
मैं हर पाठक व जिज्ञासु से अनुरोध करता हूँ कि कृपा कर इस ज्ञानग्रंथ को बिना किसी पूर्वाग्रह के अध्ययन करें जिसके माध्यम से ज्ञान के कई ऐसे रहस्यों से पर्दा हटाया गया है जो हमारे अन्य शास्त्रों में वर्णित तो हैं, परंतु उनके पीछे की वास्तविक्ताओं को व्यवहारिक तौर पर हमारे सामने नहीं रखा गया। और इसके पीछे का मक्सद इस ज्ञानग्रंथ का अध्ययन करते करते पता चल जायेगा। परंतु यह सत्य है कि यदि इन ज्ञानरूपी रहस्यों को उचित ढंग से हमारे सामने रख दिया गया होता तो आज, ‘कम से कम अंधविश्वासों के कारण', मनुष्य का पतन न हो रहा होता... ”स्वचेतना” इस प्रकार शिथिल एवं असक्रिय न हुई होती।
प्रस्तुत ज्ञानग्रंथ ”स्वचेतना” को समर्पित है। ज्ञानरूपी ”स्वचेतना”, परमात्मा का आशीर्वाद है जिसकी प्रेरणा से ही इस ज्ञानग्रंथ की रचना हुई है।
जो मनुष्य ”परमपिता परमेश्वर श्री परमात्मा” में पूर्ण विश्वास रखकर, रूचिसहित, इस ज्ञानग्रंथ के माध्यम से, प्रकृति की व्यवस्था प्रणाली को समझता जायेगा, वह अवश्य ही भयग्रस्त संसार से पार होकर, प्रेम व सद्भावना से परिपूर्ण संसार की सृष्टि में सहायक होगा और ‘अपने मूल विशुद्धस्वरूप' अर्थात ”परमात्मा” को प्राप्त होगा।
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वैसे तो परमात्मिक ज्ञान का कोई मूल्य नहीं होता, तो भी ग्रंथ का कुछ मूल्य रखा गया है ताकि मात्र वही लोग इसका अध्ययन करें जो इस विष्य की गंभीरता का समझते हों।
तो आइए, स्वयं को जानें... |