मासिकधर्म

Chapter 1 - पुरूष की खोखली महत्वकांक्षा का शिकार

 

मासिकधर्म - 'अशुभ' या 'अशुद्ध'

हमारे समाज में ढेरों भ्रातियाँ रही हैं। पुरुष-प्रधान होने के कारण लगभग हर धर्म व समाज ने आरंभिक काल से ही नारी का शोषण किया है। हिंदू समाज भी नारी जाती के साथ भेदभाव बर्तता आया है। सतीप्रथा उसी शोषण का एक ऐसा ही उदाहरण था। भला हो ब्रिटिश सरकार का जिसने स्वतंत्रता से पूर्व ही सतीप्रथा को प्रतिबंधित कर दिया था। भारत सरकार ने ‘सती प्रिवेंन्शन ऐक्ट‘ के तहत सतीप्रथा को अपराध की श्रेणी में रखा। तब कहीं जा कर भारतीय नारी को नारकिय जीवन से छुटकारा प्राप्त हुआ।

एसी ही एक अंधप्रथा है जो हमारे समाज में बुरी तरह फैल चुकी है। और वह है, ”नारी का मासिक धर्म , जिसे पुरुष प्रधान समाज ने एक अभिशाप का रूप दे दिया है। एक असाध्य रोग की तरह हमारे बीच फैल चुके इस अभिशाप ने नारी को एक दूषित प्राणी बना कर रख दिया है। मासिकधर्म को ‘रजस्वला‘ भी कहते हैं।

’मनुसमृति’ एक हिंदु शास्त्र है जिसमें महिलाओं को मासिकधर्म के दौरान अपवित्र घोषित किया गया है। इस काल में नारी को पूजा व प्रार्थना करने से वंचित कर दिया गया है। नारी को मासिकधर्म के दिनों में मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं है। व कुछ स्थानों पर तो वह अपने घर में खाना तक नहीं बना सकतीं और कहीं कहीं तो उन्हें पूरे गाँव व समाज से प्रथक एकाकी जीवन व्यतीत करने को बाध्य किया जाता है।

कुछ महानुभवों व बुद्धिजीवियों ने इन व्यवहारों को उचित ठहराया है। उनके अनुसार ऐसा इसलिए किया गया ताकि मासिकधर्म के दिनों में नारी अधिक आराम कर सके। एक दृष्टि से देखा जाए तो उचित लग सकता है। परंतु सामान्यतः ऐसा मासिकधर्म के आरंभिक एक दो दिनों के लिए तो उचित हो सकता है जब शक्ति का ह्रास अधिक होता है। परंतु यदि एक नारी कुपोषण का शिकार न हो और यदि उसे निम्नरक्तचाप जैसे रोग न हों तो प्रथम दिन के पश्चात वह शक्ति का ह्रास होने का अनुभव नहीं करती है। वहीं कुछ संतुलित व स्वस्थ नारियां तो बिलकुल भी कमजोरी अनुभव नहीं करती हैं।

 

और यदि आज के परिपेक्ष में देखा जाए तो आज ऐसी कईं दर्दनिवारक दवाईयां व मासिकधर्म को नियंत्रित करने की अनेक औषधियां उपलब्द्ध हैं, तो फिर इन रूढ़ीवादी रीतियों के लिए स्थान कहां बचता है। (परंतु दुर्भाग्यवश इन कुरीतियों का चलन तो है ही)


वह हिंदु धर्म, जिसने धर्मशास्त्रों में, मंदिरों में व अपने पूजन में नारी को देवी के रूप में सुशोभित किया है, वह इस प्रकार की कुरीतियों को कैसे पोषित कर सकता है जिनके चलन में होने से नारी के साथ इस प्रकार दुराचार व अशोभनिय व्यवहार होता हो।

हम मानें या न मानें किंतु इन कुरीतियों का कोई तो आधार होगा। चार से पाँच हजार वर्ष पहले ‘वैदिक काल‘ में नारी को जो सम्मान प्राप्त था वह वर्तमान समय आते आते तक अंधविश्वासों के घेरे में लिपटा मात्र दिखावा रह गया है। पुरूषप्रधान समाज में मात्र बाहरी दिखावे के लिए नारी आज भी सम्मान का पात्र है। मात्र अंधविश्वासों की पुष्टि के लिए नारी के देवीरूप को मूर्ती का आकार देकर मंदिरों में सजा कर रखा जाता है। परंतु वास्तविक धरातल पर कहानी बिलकुल उलटी है। वर्तमान समय में अधिकतर पुरूषों के मन में नारी का ममतामयी चेहरा नहीं समाता। आज अधिकतर पुरूष हर नारी में माँ अथवा बेटी नहीं वरन् अपनी शारीरिक संतुष्टि को पूरा करने का साधन ढंूडते हैं।

 
 
 

परंतु इस लेख का मूल विषय यह है कि अधिक्तर सांसारिक धर्मों ने मासिकधर्म के संदर्भ में दो विभिन्न शब्दों ”अशुद्ध””अशुभ” में सम्मिश्रण पैदा कर दिया है।

दूसरे शब्दों में कहें तो मासिकधर्म के संबंध में सामान्य विचारधाराऐं अनुचित हैं। और यह अनुचित विचारधाराऐं असल में अशुद्ध व अपरिपक्व कल्पनाऐं हैं, जड़ व अचेतन मन की कोरी कल्पनाऐं हैं, जो यह जताती हैं कि ”अशुद्ध””अशुभ” का अर्थ एक ही है। जबकि ऐसा नहीं है।

प्रायः कईं धर्म इन शब्दों का प्रयोग अदला-बदली करके करते रहते हैं (कम से कम सामान्य प्रयोग में तो ऐसा ही है), परंतु धार्मिक मान्यताओं का अनुसरण करने वाले जब शास्त्रों को अध्ययन करते हैं तो वह इन शब्दों को पर्यायवाची के रूप में करने से बचते हैं। कम से कम हिंदू धर्म के अनुसार - वह जो धार्मिक दृष्टि से ”अशुद्ध” हो, आवश्यक नहीं कि वह ”अशुभ” भी हो।

“अशुद्धि” का अर्थ होता है भौतिक शरीर का किसी कारण से दूषित हो जाना जिसे सनानादि करके शुद्ध किया जा सकता है। व ”अशुभता” आभासिय है अर्थात यह मानसिक अवस्था होती है जो किसी पापकर्म से उत्त्पन्न होती है, जैसे कि किसी ब्राह्मण द्वारा किसी परनारी के साथ संसर्ग करने से वह ब्राह्मण अशुभ की संज्ञा पाता है और जैसे किसी नारी द्वारा पतिधर्म का आचरण न करने से वह नारी अशुभ की संज्ञा पाती है। और अशुभता को सनानादि करके शुभ नहीं किया जा सकता वरन् इसके निवारण के लिए पश्चाताप एवं घोर प्रायश्चित करना पड़ता है, जिसमें कई जन्म भी लग सकते हैं।

यह किसी भी प्रकार मानने योग्य बात नहीं लगती, कि धर्म संकेत करता है, कि एक नारी अपने मूल नारित्व के समय ”अशुभ” होती है। कम से कम वैदिक धर्म, जिसे प्राचीनतम् धर्म की संज्ञा प्राप्त है, वह ऐसा निर्देश नहीं दे सकता। इतने ज्ञानी-ध्यानी धर्माचार्याें के होते हुए, जिन्होंने नारी को देवी की संज्ञा दी हो, इस प्रकार की त्रुटी नहीं हो सकती। नारी के मासिकधर्म काल का संबंध शारीरिक व मानसिक अवस्था से होता है, जिसमें नारी ‘शुद्धिकरण की प्रक्रिया‘ के उस दौर से गुजरती है, जिसमें वह अपनी मूल प्रकृति अर्थात मूल-नारित्व को अनुभव करती है। और यह मानने योग्य बात नहीं लगती, कि प्राचीन काल के वह महानुभव, जिन्होंने वैदिक धर्म की नींव रखी हो, वह प्रकृति द्वारा होने वाली किसी भी क्रिया-प्रक्रिया को ‘अशुभता‘ की दृष्टि से देखें।

ऐसा प्रतीत होता है कि किन्हीं अज्ञानी व लालची पंडितों का यह षड्यंत्र था जिस कारण नारी लंबे समय से इस भ्रांती का शिकार हो रही है।

 
 
 
Our Ch. Astrologer

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