मासिकधर्म

Chapter 2 - आधुनिक समय में मासिकधर्म के प्रचलित क्रिया कलाप

 

यह सत्य है कि मासिकधर्म के चक्र के समय नारी को पूजा करने से मना किया जाता है। उसे किसी भी धार्मिक अनुष्ठान में सम्मलित होने से रोका जाता है, (यहाँ तक कि प्रसाद को छूने की भी मनाही होती है ) जैसा की पहले लिखा गया है कि ‘मनुसमृति‘ ने ऐसा करने को निर्देशित किया है। जबकि ‘मनुसमृति‘ के अधिकार को लेकर विभिन्न बुद्धिजीवियों मेें सदैव मतभेद रहे हैं। और यह भी कि ‘मनुसमृति‘ के कईं भागों में कांटछांट की गई है तो भी यह सत्य ही लगता है कि नारियों को रजस्वला के समय पूजा व होम न करने का निर्देश किसी न किसी रूप में दिया ही गया था। अन्यथा क्युँकर नारी स्वयं को किसी भी परिस्थिति में परमात्मा का पूजन करने से रोकती... क्युँकर नारी स्वयं को प्रताड़ित करने के लिए अपनी सहमती देती।

कुछ अन्य मान्यताऐं भी देखने में आती हैं जोकि हमें यह समझ प्रदान करने में सहायक हैं कि क्यूँ यह तथाकथित पाखंडरूपी प्रचलन व्यवहार में है।

टिप्पणीः - हाँलांकि मैंने एक लंबा समय इस विषय के शोध व अध्ययन में लगाया है , तो भी कोई ऐसा मूल स्रोत जो मासिकधर्म के व्यवहार को अधिकारिकरूप से (धार्मिक दृष्टि से ही सही) दृष्टांत कर सके नहीं खोज पाया। इस लेख में उल्लेखित अधिकतर उदाहरण व्यक्तिगत अनुभवों व उन अनौपचारिक वार्ताओं पर आधारित हैं जो की विभिन्न समुदायों में रहने वाले विभिन्न महानुभवों से बातचीत के दौरान लिए।

इस विषय पर सामान्यतः दो प्रकार के , किंचित विवादास्पद स्पष्टीकरण या यूँ कहें कि मत प्राप्त होते हैं जो अधिक प्रचलन में हैं। अपने मतानुसार आप मान सकते हैं अथवा नहीं।

मतों का उल्लेख करने से पूर्व , आपके ज्ञानवर्धन हेतु एक लेख आवश्यक समझकर लिखा हैः -

जीवन को निरंतरता देने के लिए ‘ परमपिता परमेश्वर से निर्दिष्ट प्रकृति ‘ द्वारा हमारे शरीर के भीतर पंचप्राण नियुक्त किए कए हैं। हमारे शरीर को जीवित रखने एवं उसे सुचारू रूप से चालू रखने के लिए इन प्राणों की नियुक्ति की गई है। यह प्राणिक क्रियाऐं स्वतः ही कार्य करती हैं अर्थात ये स्वचलित क्रियाऐं हैं। और चूँकि प्राण परमात्मिक हैं , सो इनकी किसी भी कार्यप्रणाली से ‘ अशुभता ‘ प्रकट नहीं हो सकती। ‘ प्राण ‘ जिसे हम श्वास - प्रश्वास , ऊर्जा , जीवन वायु या Life Force Energy भी कहते हैं। मासिकधर्म के विषय की चर्चा के संदर्भ में अभी हम इन्हें ‘ ऊर्जा ‘ समझ लेते हैं।

शरीर में वायुरूपी पांच प्राणिक ऊर्जाऐं हैं , जो इस प्रकार हैंः

1 - प्राण वायुः - यह ग्रहण करता है।

2 - अपान वायुः - यह त्याग करता है या छोड़ता है।

3 - समान वायुः - यह आत्मसात करता है।

4 - व्यान वायुः - यह संचारित व वितरित करता है।

5 - उदान वायुः - यह वयक्त करता है , विशेषतः बोलना।

 

 
 
 

इन पांच प्राण की ऊर्जा के प्रवाह में किसी भी प्रकार का व्यवधान असंतुलन व रोग पैदा कर सकता है। उदाहरण के रूप में 'व्यान वायु' व 'उदान वायु' के प्रवाह में व्यवधान हमारे शरीर की जैविक-क्रिया अर्थात Metabolism को रोगग्रस्त कर सकता है, जिससे हमारे शरीर में रोगों से लड़ने की क्षमता अर्थात रोगप्रतिरोधक क्षमता का ह्रास होता है और हमारा शरीर भौतिक व मानसिक कमजोरी का शिकार हो जाता है।

पूजा व होम के समय 'पंचप्राणों का नियमन' व भावनाओं के स्तर का उठ्ठान होता है। (प्राणायाम, जिससे प्राणों को आयाम प्रदान किया जाता है, से पंचप्राणों की गतिविधियों को भी संतुलित किया जा सकता है) । पंचप्राणों के साथ ही पाँच उपप्राणों की अधिक जानकारी के लिए शशी कपूर द्वारा रचित ज्ञानग्रंथ - ”स्वचेतना - परमात्मा का आशीर्वाद” का अध्ययन करें।

और अब , दोनों प्रचलित मतों का उल्लेख कर रहे हैं।
 
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