मासिकधर्म

Chapter 6 - मासिकधर्म व वैश्विक सिद्धांत

 

प्राचीन वैदिक काल के ऋषिगण जो हर प्रकार से आज के काल के तथाकथित गुरूघंटालों व पोंगापंडितों के मुकाबले हर क्षेत्र में अग्रणी थे , जानते थे कि मासिक धर्म के समय नारी न जाने कितनी ही प्रकार की ऊर्जाओं के बेकाबू प्रवाह को अपने भीतर ही काबू करने के लिए प्रकृति के साथ द्वदं कर रही होती थी। तो नारी की मनोदशा को जान कर उसकी सहायता के लिए ही मासिक धर्म के समय उसे अधिक से अधिक विश्राम करने को कहते थे। अर्थात उनका असली उद्देश्य न केवल समुदाय को वरन् स्वयं नारी को उसी के मन में उठने वाली विध्वंसकारी ऊर्जाओं के प्रभावों से बचाना था।

परंतु वर्तमान काल के तथाकथित गुरूघंटालों व पोंगापंडितों की कारगुजारी देखिए कि जिस अवस्था को वे स्वयं न समझ पाए उस अवस्था को दूसरे लोगों के लिए भी भयरूपी बना डाला। और उस अवस्था का लाभ लोगों में अंधविश्वास बढ़ाने के लिए किया। यह पुरूष का खोखला अहंकार है कि नारीशक्ति को वैसे तो पूजनीय बताते हैं परंतु मासिक धर्म के समय जब नारी को सबसे अधिक सहानुभूती एवं प्रेम की आवश्यक्ता होती है उस समय अपनी वास्तविक्ता को छिपाने के लिए नारी को तिरस्कार का भाजन बना डालते हैं। और वह वास्तविक्ता यह है कि पुरूष नारीशक्ति के बिना अधूरा है और यह बात हर पुरूष अंदर ही अंदर जानता है। तो आप ही बताइए कि जिस समय नारीशक्ति का ह्रास हो रहा होगा, उस समय पुरूष भी तो शक्तिहीन महसूस करता होगा। तो जो खुद ही असमर्थ होगा वो दूसरे को क्या सहानुभूती एवं प्रेम दिखाएगा। उस समय तो वह स्वयं प्रेम व सहानुभूती का तलबगार होगा।

मेरे मतानुसार, हर नारी हर काल में ‘शक्तिस्वरूपा‘ है। जब मासिकधर्म न हो तो नारी गौरी के रूप में मां बनकर ‘परूषत्व‘ को पालती है, सरस्वती बन कर ‘परूषत्व‘ को शिक्षित करती है और लक्षमी बनकर ‘परूषत्व‘ को जीविका के साधन प्रदान करती है। वहीं वह नारी अपने मासिक धर्म के दौरान काली स्वरूपा होती है जब वह प्रकृति की बेकाबु हो चुकि नकारात्मक शक्तियों का दमन करती है ताकि ‘पुरूषत्व‘ सुरक्षित रह सके।

 
 
 

वैश्विक सिद्धांत के अनूरूप ज्योतिष विद्या का अनुसरण करने वाला मैं, यहाँ एक बात अवश्य जोड़ना चाहूंगा कि जो मनुष्य अपने जीवन में नारी शक्ति का सम्मान नहीं करता हो वह किसी देवी, देवता अथवा ग्रहों से आशीर्वाद की उम्मीद न रखे। उसके लिए हर प्रकार के पूजा-पाठ, महंगे रत्न, रूद्राक्ष, दान-दक्षिणा, यंत्र, मंत्र, तंत्र सब बेकार सिद्ध होंगे।

एक महत्वपूण बात स्मरण रखें - हम जो स्वयं को पुरूष कहते हैं वास्तविकता में पुरूष नहीं हैं, वरन एक ‘प्राकृत शरीर‘ हैं। "वास्तविक पुरूष" केवल एक है, जो "परमात्मा" हैं, जिनका "पुरूषरूपी" एक अंश "आत्मा" के नाम से हमारे भीतर स्थित है। और उन्हीं का "नारीरूपी" दूसरा अंश "चेतना" के नाम से हमारे भीतर स्थित है।

‘परमात्मा‘ व ‘प्रकृति‘ के मिलन से ‘सृष्टि‘ उत्तपन्न होती है, जो स्वभाव से ‘जड़‘ है अर्थात जिसमें अपनी कोई चेतना नहीं है। वह तो मात्र Computer System की भांती पहले से निर्धारित क्रियाओं का पालन करने का बाध्य है। "शरीर" के रूप में "हम" उस "प्राकृत सृष्टि" का एक भागमात्र हैं जिसके भीतर "पुरूषत्व" व "नारित्व" के भाव बराबर मात्रा में समाहित हैं। "पुरूषत्व" "आत्मा के रूप में" और "नारित्व" "चेतना के रूप" में हम में समाहित है।

विडंबना देखिए, स्वयं को पुरूष मानकर हम (अर्थात हमारा शरीर) परमात्मा की बराबरी करने का खोखला प्रयास करता है, और वह भी नारीशक्ति का अपमान करके! जबकि सच्चाई यह है कि हम "जड़ सृष्टि" में उपजे हुए वह शरीर हैं जिसमें "आत्मारूपी पुरूष" मात्र द्रष्टा अथवा अनुभवकर्ता की भूमिका निभा रहा है। और "शरीर" और "पुरूष" के मेल से जो "तंत्र" विकसित होता है उसे सुचारू रूप से चलाने के लिए "चेतनारूपी नारी" ही उर्जा प्रदान करती है। "अर्थात नारी शक्ति ही वास्तविकता में कार्मिक शक्ति है"।

तो सोचिए, नारीशक्ति का अपमान करके हम परमात्मा का अपमान कर रहे हैं या नहीं!

गहराई से सोचिएगा!

और अपनी चेतना के स्तर को ऊँचा उठाने के लिए शशी कपूर द्वारा रचित ग्रंथ ‘स्वचेतना - परमात्मा का आशीर्वाद‘ का अध्ययन अवश्य करें, जिसमें परमात्मा, प्रकृति, सृष्टि, तत्व, शरीर, पुरूष, चेतना, बुद्धि, मन, गुण, विचार, स्वभाव, मोक्ष, मुक्ति, भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास आदि सभी परमात्मिक विषयों का विस्तारपूर्वक विवरण दिया गया है।

 
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