स्वचेतना - परमात्मा का आशीर्वाद

प्रस्तावना - 1

 

”हममें से अधिकतर लोग इस बात पर सहमत होंगे कि हम जिस संसार में रहते हैं वहाँ प्रचलित समस्याओं में से अधिकतम हमारे द्वारा ही रचित हैं। यहाँ, इस संसार में मुद्राओं का चलन है। ऊपरी तौर पर तो यहाँ रुपया-पैसा ही चलन में दिखाई देता है। पर वास्तविक्ता में, भय की इस नगरी में, धन-दौलत और सत्ता की ताकत, दो ऐसी मुद्राऐं हैं जिनसे यह तय होता है कि आप क्या ”प्राप्त” कर सकते हैं।

”मैं और मेरापन” और ”स्वयं को उच्चतम शिखर पर देखने की चाहत” - यही हैं बाहरी और बनावटी सफलता की कुँजी, जो भौतिकतावाद व अतिवाद से भरपूर इस संसार में जीने की प्रेरणा देती हैं”। (और ऐसा यहाँ प्राकृतिकरूप से होता है, अर्थात यह इस संसार का स्वभाव है)

”आंतरिक सफलता, आत्मिक शांति, प्रसन्नता, आत्मसंतुष्टि, आनंद व पूर्णता को प्राप्त करना, वो भी ऐसे भयाक्रांत वातावरण में, जहाँ अपनेपन पर केंद्रित अहंकार अर्थात ”अहम्” इतना बलवान हो चुका हो, नामुमकिन नहीं तो अत्यंत कठिन अवश्य है”।

”वहीं दूसरी ओर हमारी कल्पनाओं में एक प्रेम व सद्भावना की नगरी है, जहाँ दया, करुणा व सेवारूपी ऐसी मुद्राऐं चलन में हैं, जिनसे यह तय होता है कि आप दूसरों को क्या ”दे” सकते हैं। वहाँ ”मैं और मेरापन” नहीं वरन् दूसरों का महत्व अधिक है। वहाँ दूसरों के प्रति करुणा व सेवा का भाव ही सफलता की कुँजी है - आंतरिक सफलता की कुँजी। वस्तुतः उस नगरी में आंतरिक व बाहरी जैसा कोई भेद नहीं है। वहाँ आत्मसंतुष्टि, आनंद व पूर्णता को प्राप्त करना सरल है क्योंकि वहाँ ऐसा प्राकृतिकरूप से होता है”।

एक संसार, जहाँ भय का वर्चस्व हो... जहाँ चहुँ ओर अहम् पसरा हो, को समझना सरल है क्योंकि हम उस संसार में रहते हैं... उसे अनुभव करते हैं। हम उस संसार की व्यवस्था प्रणाली का ही एक हिस्सा हैं। और दूसरी ओर एक ऐसे संसार की कल्पना है जहाँ चहुँ ओर शांति व आनंद पसरा हो। ऐसे संसार की व्यवहारिकता व वास्तविक्ता पर संदेह होता है क्योंकि हमने कभी उसे अनुभव नहीं किया है। ”स्थाई शांति” व ”नित्य आनंद” का विचार हमें अप्राकृतिक लगता है... अव्यवहारिक लगता है। ऐसे संसार में रहना जहाँ भय न हो, को अपने विचारों में गढ़ना भी दूर की कौढ़ी प्रतीत होता है अर्थात ऐसे संसार की कल्पना करना भी हमारे लिए कठिन है।

तो भी... हैं तो हम मनुष्य। कल्पनाओं को सार्थक करना कितना ही कठिन हो, परंतु हम प्रयास अवश्य करते हैं। और जैसे ही हम अपनी कल्पनाओं में प्रेमरूपी संसार के सामाजिक ढांचे को गढ़ने का प्रयास करने लगते हैं; जैसे ही हम दूसरों के प्रति सद्भावना अपनाने का प्रयास करने लगते हैं, हममें व्याप्त अहम् की अधिकता व भयग्रस्त सोच हमारे मन पर हावी हो जाती है, जो दूसरों के प्रति जगे दयाभाव को नष्ट कर देती है। हमारे द्वारा ऐसी प्रतिक्रिया होती है क्योंकि हम भयग्रस्त संसार के भयग्रस्त व अहम् से पीड़ित निवासी हैं। एक कहावत है - संगति का असर होता है। सो इस संसार की व्यवस्था का असर है कि यह भय और अहम् हममें प्राकृतिक तौर पर विद्यमान है। ऐसे ही हैं हम!

 
 
Our Ch. Astrologer

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